Saturday, 30 September 2017

Stay Hungry Stay Foolish | सफलता का मंत्र

Stay Hungry Stay Foolish – कुछ दिन पहले मैंने Steve Jobs की ये line सुनी थी, तब इसमें बहोत बड़ी बाते छुपी नजर आयी, उनका कहना था की हमेशा भुके रहे. मतलब अपने जीवन को सफल बनाने के लिये..
अपने मन मे हमेशां कुछ बड़ा करने की चाहत रखे. इतना बड़ा की कोई सोच भी ना सकें… उसके लिए खुद को तैयार करे. उसके लिए कुछ त्याग भी करना पड़े तो करे, अपनी इच्छाओ को नियंत्रण में रखे. क्योकिं कुछ भी बड़ा करने के लिए आपको उसकी भूक होनी चाहियें…
हमेशा याद रखे की आप अपने लक्ष्य को क्यों हासिल कर रहे हो?
हमेशा आगे बढ़ने के लिये अवसरों को ढूंढते रहे, ताकि स्वयं का निर्माण कर सको.
कभी किसी को पीछे न छोड़े, जो कुछ भी करने की आप कोशिश कर रहे हो उसे पाने की लगातार कोशिश करते रहे.
ध्यान रखे –
यदि आप हर दिन अपना और दूसरे का ख्याल रखते हो तो आप निश्चित ही सही रास्ते पर जा रहे हो.
यदि आपमें भूक नही है तो आप सिर्फ दिमाग के भरोसे पर कही नही जा सकते.
यदि आप लक्ष्य को पाने के लिये प्रेरित नही हो तो आपको बस पहली रूकावट को अनदेखा करने की जरुरत होगी.
यदि आपका दिल नही चाहता तो आप कभी भी कोई सबसे अच्छा काम नही कर सकते.
यदि आपमें कुछ करने की इच्छा ही नही है तो आप कभी भी कुछ सीखकर आगे नही बढ़ सकते.
यदि आप एक भुके शेर की तरह हो तो जेब्रा की चेसिंग करने समय ज्यादा महेनत करने की कोशिश करे.
भूकी व्हेल ही खाने के तलाश में हज़ारो किलोमीटर चलती रहती है.
सिर्फ और सिर्फ भुका इंसान ही इस दुनीयाँ को बदल सकता है.
इसीलिये हमेशा भुके रहे.

Inspiring Story In Hindi | तोडना आसान जोड़ना मुश्किल

Inspiring Story In Hindi – तोडना आसान जोड़ना मुश्किल

एक समय की बात है जब दो भाई, एक दुसरे के सामने ही पास वाले खेत में रहते थे. और 40 साल तक बिना किसी झगडे के वे मशीन बाटते थे, मजदुर खरीदते थे और जरुरत के अनुसार वस्तुए भी खरीदते थे. उनके बिच लम्बे सहयोग के बाद एक गलतफहमी हो गयी. और बहोत बड़ा झगडा भी हुआ, ग़लतफ़हमी से शुरू हुई ये अनबन कई हफ्तों तक चली और कुछ समय की शांति के बाद अब उनमे बहोत बदलाव आया और अब वो गलत                                       

                फहमी कडवे शब्दों में बदल चुकी थी.

एक सुबह जॉन के दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी. उसने दरवाज़ा खोला और पाया की बढई अपने सामान का बड़ा बक्सा लेकर खड़ा था. उसने बड़े भाई से कहा की वो कुछ दिनों से काम ढूंड रहा है. और नम्रता पूर्वक उसने पूछा की क्या उनके पास कोई छोटा-मोटा काम है जिसे वह कर सकता है? क्या वह उनकी मदत कर सकता है? ये सुनकर तुरंत जॉन (बड़े भाई) ने कहा, “हां, मेरे पास तुम्हारे लिए कोई काम है.”
उस खेत में नाले के उस पार देखो, वहा मेरा पडोसी है, पडोसी नहीं बल्कि मेरा छोटा भाई है. कुछ हफ्तों पहले हमारे बिच नाले पर एक घास का ढेर था, जो उसमे बुलडोज़र की मदत से हटा दिया (क्यू की छोटा भाई चाहता था की वो वहा पुल बनाये). ये सब उसने द्वेष और जलन की भावना से किया. तुम वो इमारती लकडियो का बाड़ा देखो? मै चाहता हु की तुम मेरे लिए भी एक बाड़ा बनाओ जो 8 फीट का हो, ताकि मै इस जगह को और उसके चहेरे को ना देख सकू. इस पर बढई कहता है की, “मुझे लगता है की मै इस परिस्थिती को समझ सकता हु. तुम मुझे कुछ किले दो और एक गड्डा खोदने वाला मनुष्य दो, तुम जो चाहते हो वो काम में निच्छित ही करूँगा.”
बड़े भाई को गाव में जाना था ताकि वो उस बढई की जरुरत का सामान लाने में मदत कर सके और फिर पूरा दिन आराम से खेत में काम कर सके. वो बढई पूरा दिन मुश्किल काम करता रहा जैसे लकडिया गिनना, खोदना,चुनना. शाम होने तक जब किसान (दोनों भाई) वापिस आ रहे थे तब तक उसका काम खत्म हो चूका था.
उन दोनों भाइयो की आखे खुली के खुली रह गयी क्यू की वहा कोई बाड़ा नहीं था. वहा पर सिर्फ और सिर्फ एक पुल था जो नाले के दोनों तरफ फैला हुआ था. उसने संतोषजनक काम किया था. और तब दोनों को अपनी-अपनी गलतियों का अहसास हो चूका था और उनके बिच की ग़लतफ़हमी भी दूर हो गयी थी.
बढ़ई ने बड़े भाई द्वारा दिए काम को छोड़कर दोनों भाइयो के बिच के रिश्ते का पुल बनाने का काम किया था, जो निच्छित ही प्रेरणास्पद था. उसके पडोसी, उसका छोटा भाई सभी उसी की तरफ आ रहे थे, दोनों भाई उस समय एक दुसरे को देखने के लिए बेचैन थे. और पुल के बिच में दोनों ने एक दुसरे को गले लगाया.
वे मुड़े और उन्होंने देखा की वो बढई कंधे पर अपना सामान लेकर जा रहा था. तभी बड़े भाई ने कहा, “कृपया रुको! कुछ दिन और रुको. मेरे पास तुम्हारे लिए और भी काम है. तब बढई ने कहा की उसे वहा रुकना और रहना निच्छित ही अच्छा लगेगा, लेकिन मुझे इस तरह के और भी बहोत से पुल बनाने है.
सीख – Moral
रिश्तो को तोडना बहोत आसान है लेकिन बनाये रखना बहोत मुश्किल. हमें जीवन में सभी के प्रेम भावना के साथ पेश आना चाहिये. रिश्तो में अनबन तो होते ही रहती है लेकिन हमें उस समय रिश्तो को तोड़ने की बजाये जोड़ने का काम करना चाहिये. और इसी तरह का प्रेरणास्पद काम बढ़ई ने किया था.

एक खुबसूरत कहानी / Hindi Inspirational Stories

एक खुबसूरत कहानी / Hindi Inspirational Stories

कैसे हम खुश रह सकते है?
एक समय की बात है, 50 लोगो का एक समूह किसी सेमीनार में उपस्थित होने के लिए गया था.
तभी सेमीनार में अचानक बोलने वाले ने बोलना बिच में ही बंद कर दिया और कुछ सामूहिक मिलकर करने की ठानी. उसने उपस्थित सभी लोगो को एक गुब्बारा देना शुरू किया. जिसपे सभी को एक मार्कर पेन से अपना-अपना नाम लिखना था. और बाद में सभी गुब्बारों को जमा किया गया और एक अलग कमरे में ले जाकर रखा गया.
और बाद में सभी को उसी कमरे में भेजा गया और सभी को अपने-अपने नाम का गुब्बारा 5 मिनट के अंदर धुंडने को कहा. सभी लोग जल्द से जल्द अपने नाम के गुब्बारे को धुंडने में लगे रहे, एक-दुसरे को धक्का देने लगे, सभी लोग गड़बड़ी करने लगे थे.
5 मिनट के अंत में किसी को भी अपने नाम का गुब्बारा नही मिला था.
अब सभी से कहा गया था की एक-एक गुब्बारा उठाये और उसपे जिसका भी नाम होंगा उसे वह दे-दे.
अब 5 मिनट के अंदर ही सभी के पास अपने-अपने नाम का गुब्बारा था.
तभी उसने बोलना शुरू किया – यही गतिविधि हमारे जीवन में भी होने लगी है. हर कोई जल्दबाजी में अपने आस-पास ख़ुशी धुंडने में लगा हुआ है, बल्कि उसे ये पता भी नही होता है की उसे वह ख़ुशी कहा मिलेंगी.
हमारी ख़ुशी दूसरो की ख़ुशी में ही छुपी होती है. आप दूसरो को उसकी ख़ुशी दीजिये, आपको अपनी ख़ुशी अपनेआप ही मिल जाएँगी.
और यही मानवी जीवन का उद्देश है.

पहले खुद को बदलो | Prernadayak Kahaniya In Hindi

एक समय की बात है, एक महिला महात्मा गांधीजी के पास आई और उनसे पूछा की वे उनके बेटे से कहे की वह शक्कर खाना छोड़ दे. गांधीजी ने उस महिला को अपने बच्चे के साथ एक हफ्ते बाद आने के लिए कहा. पुरे एक हफ्ते बाद ही वह महिला अपने बच्चे के साथ वापिस आई, और गांधीजी ने उसके बेटे से कहा, “बेटा, कृपया शक्कर खाना छोड़ दो.”
जाते-जाते उस महिला ने महात्मा गांधी जी का शुक्रियादा किया और जाने के लिए पीछे मुड ही रही थी की उसने गांधीजी से पूछा, की उन्होंने यही शब्द एक हफ्ते पहले उसके बेटे से क्यू नही कहे थे.
गांधीजी ने नम्रता से जवाब दिया, “क्यू की एक हफ्ते पहले, मैंने शक्कर खाना बंद नहीं किया था.”
यदि आपको दुनिया को बदलना है, तो सबसे पहले आपको अपने आप को बदलना होंगा. यही महापुरुष महात्मा गाँधी के शब्द थे.
दोस्तों, हम सभी में दुनिया बदलने की ताकत है पर इसकी शुरुवात खुद से ही होती है. कुछ और बदलने से पहले हमें खुद को बदलना होंगा…. हमें खुद को तैयार करना होंगा… अपनी काबिलियत की अपनी ताकत बनाना होंगा….
अपने रवैये (Attitude) को सकारात्मक (Positive) बनाना होंगा…. अपनी चाह को फौलाद करना होंगा… और तभी हम वो हर एक बदलाव ला पाएंगे जो हम सचमुच में लाना चाहते है..
दोस्तों, इसी बात को महात्मा गाँधी ने बड़े ही प्रभावी ढंग से कहा है,
“खुद वो बदलाव बनिए जो आप दुनिया में देखना चाहते है.”
तो चलिए क्यों ना आज से ही हम गांधीजी की राहो पर चलने की कोशिश करे. और पहले खुद में वो बदलाव लाये जो आप दुनिया में अपने आसपास में देखना चाहते हो..

Gyan Ki Baatein No. 10 – हमेशा धैर्य रखे

अच्छी बाते या चीजे उन्ही के रास्तो में आती है जो सब्र करते है, और सफल व्यक्ति इस बात को अच्छी तरह जानते है। एक ही रात में सफलता बहुत ही कम लोगो को प्राप्त होती है और एक समाधानी सफलता वर्षो के कठिन परीश्रम के बाद प्राप्त होती है। इसीलिए हमेशा धैर्य रखे, हमेशा आगे बढ़ने में ही ध्यान केन्द्रित करे और अपनी आँखे मिलने वाले पुरस्कार पर रखे।
जब कभी भी सफल बनने की बात आती है, तब आपमें मिलो तक आगे चलने की इच्छा जागृत होती है। ये आसान नही है, लेकिन जब भी आप अपने लक्ष्य तक पहोच जाते हो, तब आप अपने आप को सफल मानने लगते हो। बस यही सफलता है।
सफल होने के लिए आपको कोई खास चीज़ या वस्तु पाने की जरुरत नहीं। या आपको उतने पैसे कमाने की जरुरत नहीं। आपका व्यक्तिमत्व ही आपके सफलता की indicator है। तब आप किसी को impress करने के लिए नहीं बल्कि खुद के लिए पुरे आनंद से काम करेंगे। तब आपका काम किसी भी पैसे या कीमत से ज्यादा अमूल्य होगा। तब आप समझायेंगे की आपने सफलता हासिल कर ली है।

ज्ञान की बात नं. 9 – कोई आपको भयभीत नही कर सकता:

कभी दूसरो से अपनेआप को भयभीत महसुस ना होने दे। कोई भी महान काम करने के लिये आपको किसी से भी इजाज़त लेने की जरुरत नही है। सिर्फ इसलिए की वे बुद्धिमान है, उन्हें अपने सिर पर ना बिठाये।
आप में भी बहुत अनुभव है और आप में उनसे भी महान सफलता हासिल कर सकते है। दूसरो को अपने से ज्यादा बुद्धिमानी मानना मतलब अपने विश्वास और हिम्मत को कम करना है। ऐसा करने से आपकी काबिलियत में भी कमी आएँगी क्योकि उस समय ऐसा सोचने लागोंगे की आप उनकी तरह अच्छे या महान नही है।
हमेशा याद रखे, हर किसी को बदला जा सकता है और हर किसी को हराया जा सकता है। बल्कि आपको भी।
कहते है सबसे बड़ा रोग क्या कहेंगे लोग, कोई भी काम करते वक़्त आपके प्रतियोगी आपके बारे में क्या बुरा कह रहे है उसपे focus करने के आलावा खुद के काम पर ध्यान दे। प्रतियोगिता की इज्ज़त करना सीखे और कभी भी न डरे।

Gyan Ki Baatein No. 8 – अपने लक्ष्य को रोज़ पुर्नस्थापित करे

बहोत से कम सफल लोग यही सोचते है की अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जिंदगी ही उन्हें कभी आकर्षित करेंगी। ऐसे इंसान वे क्या करना चाहते है की बजाये क्या कर रहे है इस बात पर ज्यादा ध्यान देते है। यदि आप अपने लक्ष्य को रोज़ पुर्नस्थापित करते हो तो आपके लिये सबसे अच्छी बात यही होंगी की आप आसानी से उसे प्राप्त कर सकते हो।
जब आप अपनी जरुरत के अनुसार काम करते हो, तभी आप अपने आप को सशक्त बना सकते हो।

ज्ञान की बात नं. 7 – मुश्किल कामो को करने की कोशिश करे:

जहा दुनिया में लोग सबसे सरल, तेज़ और आसान रास्ता अपनाकर सफल बनना चाहते है वही आपको मुश्किल से मुश्किल रास्तो को अपनाकर सफल बनने की कोशिश करनी चाहिये।
मुश्किलों से दूर भागकर आप अपनी सफलता को खुद से और भी दुर भेजते चले जाते हो। सफलता के रास्ते में आने वाली मुश्किलों का सामना आपको कंधे से कंधा मिलाकर करना चाहिये। आँख से आँख मिलाकर आने वाली मुश्किलों का सामना करना चाहिये। और हमेशा यही सोचना चाहिये की आप कोई भी मुश्किल से मुश्किल काम कर सकते हो।

Gyan Ki Baatein No. 6 – अपने रवैये का चुनाव करे:

किसी भी दिन घर से बाहर पहला कदम रखने से पहले आपके लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यही होती है की अपने दिन का सामना करने के लिए आप किस रवैये को अपनाते है। नकारात्मक रवैया आपके दिन को बुरा, बहुत बुरा बना सकता है। लेकिन एक सकारात्मक रवैया आपके जीवन में अच्छे और महान विचारो की वर्षा कर सकता है।
इसीलिए हमेशा घर से बाहर निकलने से पहले अपने रवैये को निश्चित कर ले, क्योकि जितना अच्छा रवैया आप अपनओंगे, उतना ही अच्छा आपका दिन होंगा। सकारात्मक रवैया ही Secret of success है।

ज्ञान की बात नं. 5 – थोडा सा ज्यादा करने की कोशिश करे:

जब कभी भी आप जिम में काम कर रहे होते हो, तो 10 के जगह 11 रेप्स (Reps) मारने की कोशिश कीजिये। ऑफिस में 15 फोन करने की बजाये 16 कीजिये। आप कुछ ऐसा कर रहे हो जो आपको जरा भी पसंद ना हो तो उसे एक और बार करने की कोशिश कीजिये, इससे आपकी मानसिक विचारधारा बदलेंगी।
जिसमे आप जानते हो की आपको वह काम करना पसंद नही लेकिन बार-बार करते रहने से उसमे आपकी रूचि निर्माण होते चली जाती है।
सफलता के रास्ते पर कई मुकाम ऐसे आएंगे जब आपको काम करने के लिए कोई उत्साह नहीं होगा। जो काम पहले आपको बहुत अच्छा लगता था वह करने में आपको इतना मजा नहीं आएगा। ऐसे हालत में आपका मनोबल बढ़ने के लिए और खुदको प्रोत्साहित रखने के लिए आपको यह आदत डालनी होगी। कुछ भी करते वक़्त खुद की तरफ से कुछ एक्स्ट्रा करने की कोशिश करे। सफल लोगो की यह आदत आपको future में बहुत आगे ले जाएगी।
थोडा सा ज्यादा करने की कोशिश करे। जो एक साधारण इंसान कभी नही करता।

Gyan Ki Baatein No.4 – असफलता को स्वीकार करे:

असफलता निश्चित ही मुश्किल होती है, लेकिन हर कोई जिंदगी में असफल नही बनना चाहता। कई बार सफल इंसान भी सफलता के रास्ते में असफल होते है। लेकिन वे भावनाओ में बहकर वही रुक नही जाते। बल्कि वे तो असफलता से सीखते है। असफलता उन्हें सिखाती है की उन्हें अपने प्रदर्शन में क्या बदलाव करने चाहिये, कहा सुधार करना चाहिये, और असफलता से ही सीखकर वे दोबारा उस गलती को नही दोहराते जो उन्होंने पहले की थी।
सफल होने के लिए असफल होना बहुत ही जरुरी है। कुछ लोग असफल होने के डर से नयी चीज़े करने से कतराते है। ऐसा करने से आप कभी असफल नहीं होंगे न ही आपसे कभी कोई गलती होगी पर ऐसा करने से आप कुछ नया नहीं सिख पाओगे।
ऐसा जीवन जीना व्यर्थ है जिसमे आपने कुछ सीखा नहीं या फिर कुछ नया किया नहीं। इसिलए अपने असफल कामो से शर्मिंदा होने से अच्छा उनपर गर्व महसूस कीजिये। उनके वजह से आप एक दिन सफल होंगे।

ज्ञान की बात नं.3 – प्रतिउत्तर (दुसरे सलाह ले) से कुछ सीखे:

बहुत से लोग इस बात से नफरत करते है की वे जो कुछ भी कर रहे है उसके प्रतिउत्तर में लोग उन्हें गलत बोले और कुछ नया करने की सलाह दे। दुसरे के सलाह को स्वीकार करना कोई आसान काम नही है, लेकिन यदि आप ये निर्णय ले लेते होते की आप उनके सलाह को सुनोंगे और अपने कार्य में सुधार की कोशिश करोंगे, तो आपका प्रदर्शन और भी ज्यादा अच्छा होने लगेंगा।
हम यहाँ ये नही कह रे है की सभी के सलाह को सुने और उन्ही के अनुसार आगे बढ़ते रहे। बल्कि हमारा मतलब है की, आप अपने जीवन में कुछ अच्छे और सफल इंसानों का चुनाव करे। जिनके बारे में आप सब कुछ जानते हो, या जो आपको दिल से चाहते हो या जिनको आपने रूचि है। और उन्ही के सलाह को सुनकर, उनके द्वारा बताये गये उपायों पर चलने की कोशिश करे। ऐसा करने से ही आपमें आंतरिक और शारीरिक बदलाव होंगा, और आपके प्रदर्शन में भी सुधार आयेंगा।
यदि आपको कोई मुश्किल होंगी के कैसे लोगो से उनके सलाह लिए जाये और कैसे उन्हें अपने जीवन में अपनाया जाये, तो आपके लिए ये लेख बहोत ही मददगार साबित हो सकता है।

Gyan Ki Baatein No. 2 – अपना हर दिन एक उद्देश के साथ शुरू करे:

अपने दिन की शुरुवात एक स्पष्ट उद्देश के साथ शुरू करने से आप आसानी से अपने लक्ष्य को हासिल कर सकते हो। जैसा की हमने पहले भी कहा है की सफल इंसान “सिर्फ इसलिये” / ”ऐसेही “/ “Timepass के लिए” कोई भी काम नही करते।
सफल इंसान अपना हर एक काम किसी न किसी उद्देश के साथ ही करता है। कोई भी काम आप क्यों कर रहे हो? इस बात को जानना, आपमें आपके लक्ष्य को पाने की अपार उर्जा निर्माण करता है। Clear उद्देश्य होने के कारण आप अपना काम ठीक से plan कर सकते है और आपका time बेकार चीज़े करने में बर्बाद नहीं होगा।

ज्ञान की बात नं. 1 – सुबह पर अपना कब्ज़ा कर ले:

जब साधारण / असफल लोग सोते रहते है उस वक़्त सफल लोग रोज़ अपने नये-नये इरादों के साथ आगे बढते चले जाते है। जब आप सुबह जल्दी उठते वक़्त alarm को आलस या नींद के वजह से बंद करते हो और खुद को काम न करने के बहाने देने लगते हो तब आपके लिए सफल होना बहुत ही मुश्किल है।
सुबह के समय जल्दी उठकर पुरी सुबह को ही अपने कब्जे में कर ले, ताकि आप अच्छे से अच्छा काम कर सको। स्वस्थ नाश्ता करना हो या exercise करना हो, important किताब / न्यूज़ पढ़ना हो या फिर आपके सबसे ज्यादा priority के काम ख़त्म करना हो, सुबह सुबह यह काम बहुत जल्दी और आसानी से हो जाते है।
Fresh दिमाग और उत्साह से किये हुए काम का result भी कई गुना अच्छा आता है। जब दुनिया में बाकी लोग पलंग पर आराम कर रहे होते है तभी आपको अपने ये सारे काम कर लेने चाहिये। और सुबह को अपने कब्जे में कर लेना चाहिये।

सफलता के लिये 10 ज्ञान की बाते – 10 Gyan Ki Baatein in Hindi

               10 ज्ञान की बाते जो आपको तेज़ी से सफलता और ओर ले जा सकती है।
यह 10 ज्ञान की बाते को जाने बिना नए दिन की शुरुवात करने के लिये एक कदम भी आगे मत बढाइये।
यह 10 ज्ञान की बाते आपमें अपार उर्जा का निर्माण करेंगी। इसीलिये अपना पुरा ध्यान इस लेख पर दीजिये! जब आप इन ज्ञान की बातो को अपनाओगे, तो आपको सफल बनने से कोई नही रोक सकता।
आप सफल बनना चाहते हो सिर्फ इस वजह से आपके जीवन में कभी सफलता नही आएँगी। यदि आप निचे दी गयी आदतों को नहीं अपना सकते हो तो आपका जीवन सामान्य ही रह जायेगा और आप अपने जीवन में बड़ा मुकाम हासिल नहीं कर पाएंगे।
जब भी कभी आप अपने आस-पास सफल लोगो को देखते है, तब ये बात कभी नही भूले की वह भी इन् ज्ञान की बातों को मानते है और उन्हें अपने जीवन में लाने का पूरा प्रयास करते है। सफलता के रास्तो में उन्होंने कई बार असफलता भी देखी है। सफल इंसान सफलता पाने के लिए अपनी कई आदतों का त्याग भी करता है और कई नयी आदतों को अपनाता भी है।
यदि आप सफलता प्राप्त करने के लिए गंभीर हो, तो आपको अपने अंदर के साधारण इंसान को कुछ नया पाने के लिए छोड़ना होंगा। इसी तरह आपमें बदलाव आ सकते है।

Friday, 29 September 2017

Tirupati balaji story: सबसे अमीर हो कर भी गरीब है तिरुपति बालाजी



 Tirupati balaji story in Hindi : अगर धन के आधार पर देखा जाए तो वर्तमान में सबसे धनवान भगवान बालाजी हैं। एक आंकड़े के अनुसार बालाजी मंद‌िर ट्रस्ट के खजाने में 50 हजार करोड़ से अध‌िक की संपत्त‌ि है। लेक‌िन इतने धनवान होने पर भी बालाजी सभी देवताओं से गरीब ही हैं
धनवान होकर भी गरीब हैं बालाजी
आप सोच रहे होंगे क‌ि इतना पैसा होने पर भी भगवान गरीब कैसे हो सकते हैं। और दूसरा सवाल यह भी आपके मन में उठ सकता है क‌ि जो सबकी मनोकामना पूरी करता है वह खुद कैसे गरीब हो सकता है।
लेक‌िन त‌िरुपत‌ि बालाजी के बारे में ऐसी प्राचीन कथा है ज‌िसके अनुसार बालाजी कल‌ियुग के अंत तक कर्ज में रहेंगे। बालाजी के ऊपर जो कर्ज है उसी कर्ज को चुकाने के ल‌िए यहां भक्त सोना और बहुमूल्य धातु एवं धन दान करते हैं।
शास्‍त्रों के अनुसार कर्ज में डूबे व्यक्त‌ि के पास क‌ितना भी धन हो वह गरीब ही होता है। इस न‌ियम के अनुसार यह माना जाता है क‌ि धनवान होकर भी गरीब हैं बालाजी।
आख‌िर कर्ज में क्यों डूबे हैं त‌िरुपत‌ि बालाजी
प्राचीन कथा के अनुसार एक बार महर्ष‌ि भृगु बैकुंठ पधारे और आते ही शेष शैय्या पर योगन‌िद्रा में लेटे भगवान व‌िष्‍णु की छाती पर एक लात मारी। भगवान व‌िष्‍णु ने तुरंत भृगु के चरण पकड़ ल‌िए और पूछने लगे क‌ि ऋष‌िवर पैर में चोट तो नहीं लगी।
भगवान व‌िष्‍णु का इतना कहना था क‌ि भृगु ऋष‌ि ने दोनों हाथ जोड़ ल‌िए और कहने लगे प्रभु आप ही सबसे सहनशील देवता हैं इसल‌िए यज्ञ भाग के प्रमुख अध‌िकारी आप ही हैं। लेक‌िन देवी लक्ष्मी को भृगु ऋष‌ि का यह व्यवहार पसंद नहीं आया और वह व‌िष्‍णु जी से नाराज हो गई। नाराजगी इस बात से थी क‌ि भगवान ने भृगु ऋष‌ि को दंड क्यों नहीं द‌िया।
नाराजगी में देवी लक्ष्मी बैकुंठ छोड़कर चली गई। भगवान व‌िष्‍णु ने देवी लक्ष्मी को ढूंढना शुरु क‌िया तो पता चला क‌ि देवी ने पृथ्‍वी पर पद्मावती नाम की कन्या के रुप में जन्म ल‌िया है। भगवान व‌िष्‍णु ने भी तब अपना रुप बदला और पहुंच गए पद्मावती के पास। भगवान ने पद्मावती के सामने व‌िवाह का प्रस्ताव रखा ज‌िसे देवी ने स्वीकार कर ल‌िया।
और इस तरह धनवान होते जा रहे हैं बाला जी
व‌िष्‍णु जी ने समस्या का समाधान न‌िकालने के ल‌िए भगवान श‌िव और ब्रह्मा जी को साक्षी रखकर कुबेर से काफी धन कर्ज ल‌िया। इस कर्ज से भगवान व‌िष्‍णु के वेंकटेश रुप और देवी लक्ष्मी के अंश पद्मवती ने व‌िवाह क‌िया।
कुबेर से कर्ज लेते समय भगवान ने वचन द‌िया था क‌ि कल‌ियुग के अंत तक वह अपना सारा कर्ज चुका देंगे। कर्ज समाप्त होने तक वह सूद चुकाते रहेंगे। भगवान के कर्ज में डूबे होने की इस मान्यता के कारण बड़ी मात्रा में भक्त धन-दौलत भेंट करते हैं ताक‌ि भगवान कर्ज मुक्त हो जाएं।
भक्तों से म‌िले दान की बदौलत आज यह मंद‌िर करीब 50 हजार करोड़ की संपत्त‌ि का माल‌िक बन चुका है।

आखिर क्यों खाया था पांडवों ने अपने मृत पिता के शरीर का मांस?

Why Pandavas eat dead body (Flesh) of Pandu : आज हम आपको महाभारत से जुडी एक घटना बताते है जिसमे पांचो पांडवों ने अपने मृत पिता पाण्डु का मांस खाया था उन्होंने ऐसा क्यों किया यह जानने के लिए पहले हमे पांडवो के जनम के बारे में जानना पड़ेगा। पाण्डु के पांच पुत्र युधिष्ठर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव थे।  इनमे से युधिष्ठर, भीम और अर्जुन की माता कुंती तथा नकुल और सहदेव की माता माद्री थी। पाण्डु इन पाँचों पुत्रों के पिता तो थे पर इनका जनम पाण्डु के वीर्य तथा सम्भोग से नहीं हुआ था क्योंकि पाण्डु को श्राप था की जैसे ही वो सम्भोग करेगा उसकी मृत्यु हो जाएगी। इसलिए पाण्डु के आग्रह पर यह पुत्र कुंती और माद्री ने भगवान का आहवान करके प्राप्त किये थे।
जब पाण्डु की मृत्यु हुई तो उसके मृत शरीर का मांस पाँचों भाइयों ने मिल बाट कर खाया था। उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योकिं स्वयं पाण्डु की ऐसी इच्छा थी। चुकी उसके पुत्र उसके वीर्ये से पैदा नहीं हुए थे इसलिए पाण्डु का ज्ञान, कौशल उसके बच्चों में नहीं आ पाया था।  इसलिए उसने अपनी मृत्यु पूर्व ऐसा वरदान माँगा था की उसके बच्चे उसकी मृत्यु के पश्चात उसके शरीर का मांस मिल बाँट कर खाले ताकि उसका ज्ञान बच्चों में स्थानांतरित हो जाए।
पांडवो द्वारा पिता का मांस खाने के सम्बन्ध में दो मान्यता प्रचलित है।  प्रथम मान्यता के अनुसार मांस तो पांचो भाइयों ने खाया था पर सबसे ज्यादा हिस्सा सहदेव ने खाया था।  जबकि एक अन्य मान्यता के अनुसार सिर्फ सहदेव ने पिता की इच्छा का पालन करते हुए उनके मस्तिष्क के तीन हिस्से खाये। पहले टुकड़े को खाते ही सहदेव को इतिहास का ज्ञान हुआ, दूसरे टुकड़े को खाने पे वर्तमान का और तीसरे टुकड़े को खाते ही भविष्य का। यहीं कारण था की सहदेव पांचो भाइयों में सबसे अधिक ज्ञानी था और इससे उसे भविष्य में होने वाली घटनाओ को देखने की शक्ति मिल गई थी।
शास्त्रों के अनुसार श्री कृष्ण के अलावा वो एक मात्र शख्स सहदेव ही था जिसे भविष्य में होने वाले महाभारत के युद्ध के बारे में सम्पूर्ण बाते पता थी। श्री कृष्ण को डर था की कहीं सहदेव यह सब बाते औरों को न बता दे इसलिए श्री कृष्ण ने सहदेव को श्राप  दिया था की की यदि उसने ऐसा किया तो  मृत्यु हो जायेगी।

कृष्ण, बलराम और राक्षस Krishna Balram Story in Hindi

महाभारत काल की बात है। एक बार कृष्ण और बलराम किसी जंगल से गुजर रहे थे। चलते-चलते काफी समय बीत गया और अब सूरज भी लगभग डूबने वाला था। अँधेरे में आगे बढना संभव नहीं था, इसलिए कृष्ण बोले, “ बलराम, हम ऐसा करते हैं कि अब सुबह होने तक यहीं ठहर जाते हैं, भोर होते ही हम अपने गंतव्य की और बढ़ चलेंगे।”
बलराम बोले, “ पर इस घने जंगल में हमें खतरा हो सकता है, यहाँ सोना उचित नहीं होगा, हमें जाग कर ही रात बितानी होगी।”
“अच्छा, हम ऐसा करते हैं कि पहले मैं सोता हूँ और तब तक तुम पहरा देते रहो, और फिर जैसे ही तुम्हे नींद आये तुम मुझे जगा देना; तब मैं पहरा दूंगा और तुम सो जाना।”, कृष्ण ने सुझाव दिया।
बलराम तैयार हो गए।
कुछ ही पलों में कृष्ण गहरी नींद में चले गए और तभी बलराम को एक भयानक आकृति उनकी ओर आती दिखी, वो कोई राक्षस था।
राक्षस उन्हें देखते ही जोर से चीखा और बलराम बुरी तरह डर गए।
इस घटना का एक विचित्र असर हुआ- भय के कारण बलराम का आकार कुछ छोटा हो गया और राक्षस और विशाल हो गया।
उसके बाद राक्षस एक बार और चीखा और पुन: बलराम डर कर काँप उठे, अब बलराम और भी सिकुड़ गए और राक्षस पहले से भी बड़ा हो गया।
राक्षस धीरे-धीरे बलराम की और बढ़ने लगा, बलराम पहले से ही भयभीत थे, और उस विशालकाय राक्षस को अपनी और आता देख जोर से चीख पड़े –“कृष्णा…” ,और चीखते ही वहीँ मूर्छित हो कर गिर पड़े।
बलराम की आवाज़ सुन कर कृष्ण उठे, बलराम को वहां देख उन्होंने सोचा कि बलराम पहरा देते-दते थक गए और सोने से पहले उन्हें आवाज़ दे दी।
अब कृष्ण पहरा देने लगे।
कुछ देर बाद वही राक्षस उनके सामने आया और जोर से चीखा।
कृष्ण जरा भी घबराए नही और बोले, “बताओ तुम इस तरह चीख क्यों रहे हो, क्या चाहिए तुम्हे?”
इस बार भी कुछ विच्त्र घटा- कृष्ण के साहस के कारण उनका आकार कुछ बढ़ गया और राक्षस का आकर कुछ घट गया।
राक्षस को पहली बार कोई ऐसा मिला था जो उससे डर नहीं रहा था। घबराहट में वह पुन: कृष्ण पर जोर से चीखा!
इस बार भी कृष्ण नहीं डरे और उनका आकर और भी बड़ा हो गया जबकि राक्षस पहले से भी छोटा हो गया।
एक आखिरी प्रयास में राक्षस पूरी ताकत से चीखा पर कृष्ण मुस्कुरा उठे और फिर से बोले, “ बताओ तो क्या चाहिए तुम्हे?”
फिर क्या था राक्षस सिकुड़ कर बिलकुल छोटा हो गया और कृष्ण ने उसे हथेली में लेकर अपनी धोती में बाँध लिया और फिर  कमर में खोंस कर रख लिया।
कुछ ही देर में सुबह हो गयी, कृष्ण ने बलराम को उठाया और आगे बढ़ने के लिए कहा! वे धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगे तभी बलराम उत्तेजित होते हुए बोले, “पता है कल रात में क्या हुआ था, एक भयानक राक्षस हमे मारने आया था!”
“रुको-रुको”, बलराम को बीच में ही टोकते हुए कृष्ण ने अपनी धोती में बंधा राक्षस निकाला  और बलराम को दिखाते हुए बोले, “कहीं तुम इसकी बात तो नहीं कर रहे हो?”
“हाँ, ये वही है। पर कल जब मैंने इसे देखा था तो ये बहुत बड़ा था, ये इतना छोटा कैसे हो गया?”, बलराम आश्चर्यचकित होते हुए बोले।
कृष्ण बोले, “ जब जीवन में तुम किसी ऐसी चीज से बचने की कोशिश करते हो जिसका तुम्हे सामना करना चाहिए तो वो तुमसे बड़ी हो जाती है और तुम पर नियंत्रण करने लगती है लेकिन जब तुम उस चीज का सामना करते हो जिसका सामना तुम्हे करना चाहिए तो तुम उससे बड़े हो जाते हो और उसे नियंत्रित करने लगते हो!”
 दोस्तों, ये राक्षस दरअसल, हमारी life में आने वाले challenges हैं, विपरीत स्थितियां हैं, life problems हैं! अगर हम इन situations को avoid करते रहते हैं तो ये समस्याएं और भी बड़ी होती चली जाती हैं और ultimately हमें control करने लगती हैं लेकिन अगर हम इनका सामना करते हैं, courage के साथ इन्हें face करते हैं तो यही समस्याएं धीरे-धीरे छोटी होती चली जाती हैं और अंततः हम उनपर काबू पा लेते हैं। इसलिए जब कभी भी life में ऐसी problems आएं जिनका सामना आपको करना ही चाहिए तो उसे अवॉयड मत करिए…जिसे फेस करना है उसे फेस करिए, उससे बचने की कोशिश मत करिए, जब आप ऐसा करेंगे तो देखते-देखते ही वे समस्याएं इतनी छोटी हो जायेंगी कि आप आराम से उनपर नियंत्रण कर सकेंगे और उन्हें हेमशा-हमेशा के लिए ख़त्म कर सकेंगे!

Pauranik Kahani #7: भीमसेन का अभिमान

Mahabali Bheem Story in Hindi
पांडु पुत्र भीम को अपनें बलशाली होने पर अत्यंत गर्व हो जाता है। वनवास काल के दौरान एक दिन वह वन की ओर विचरते हुए दूर निकल जाते हैं। रास्ते में उन्हे एक वृद्ध वानर मिलता है। वानर की पूँछ भीमसेन के रास्ते में बिछी होती है। तभी भीम उसे अपनी पूँछ दूर हटा लेने को कहते हैं। परंतु वृद्ध वानर कहता है, “अब इस आयु में मुझसे बार-बार हिला-डुला नहीं जाता तुम तो काफी हट्टे-कट्टे हो, एक काम करो तुम ही मेरी पूँछ को हटा कर आगे बढ़ जाओ।”
भीम उस वृद्ध वानर की पूँछ उठा कर हटाने के लिए भरसक प्रयास करते हैं, परंतु वह पूँछ को एक इंच भी हिला नहीं पाते हैं। अंत में भीमसेन उन्हे हाथ जोड़ कर प्रणाम करते हैं और उन्हे अपना परिचय देने का विनम्र आग्रह करते हैं।
फिर वृद्ध वानर के रूप धरे हुए पवन पुत्र हनुमान अपनें असली स्वरूप में आ जाते हैं, और भीम को अपना अहंकार छोड़ने की सीख देते हैं।
सार: बल, बुद्धि और कौशल पर कभी घमंड नहीं करना चाहिए।

Pauranik Katha Sagar #6: शिव के गण नंदी की कहानी

पौराणिक दंत कथा अनुसार, एक बार शिवजी के निवास स्थान पर कुछ दुष्ट व्यक्ति प्रवेश कर जाते हैं। इस बात का बोध होते ही शिवजी नंदी को कुछ निर्देश देना के लिए बुलाते हैं लेकिन अतिउत्साही नंदी शिवजी को अनसुना कर के उन दुष्टों के पीछे भाग पड़ता है।
नंदी के इस अबोध आचरण से क्रोधित हो कर भगवान शिव नंदी को आज्ञा देते हैं-
आज से तुम्हारा स्थान मेरे निवास स्थान के बाहर ही रहेगा।
इसी कारण आज के समय में भी भगवान शिव के प्रिय नंदी का स्थान मंदिर के बाहर ही स्थापित किया जाता है।
सार / Moral of the story- बिन सोचे समझे किसी कार्य में अमल करने पर अपार विपदा आ सकती है। जब कोई ज्ञानी व्यक्ति कुछ बोल रहा हो तब उनकी बात काटनी नहीं चाहिए और उन्हे अनसुना नहीं करना चाहिए।

Daanveer Karna kavach kundal story in Hindi


दिव्य कवच-कुंडल के साथ कर्ण अजेय था और महाभारत के युद्ध में पांडव कभी उसे परास्त नहीं कर पाते। अतः इन्द्रदेव उससे सुबह स्नान के समय ब्राह्मण स्वरूप में आ कर दान में कवच-कुंडल मांगते हैं। पिता सूर्य देव द्वारा दिखाए गए स्वप्न से कर्ण को यह बात पहले ही ज्ञात हो जाती है कि इंद्र देव उससे रूप बदल कर कवच-कुंडल मांगने आयेंगे।
पर फिर भी दानवीर कर्ण ब्राह्मण रुपी इंद्र देव को खाली हाथ नहीं लौटता और उनकी मांग पूरी करता है। इंद्र देव कवच-कुंडल के बदले में कर्ण को एक शक्ति अस्त्र प्रदान करते हैं, जिसका इस्तेमाल सिर्फ एक बार किया जा सकता था और उसका कोई काट नहीं था।
युद्ध के दौरान भीम का पुत्र घटोत्कच कौरव सेना को तिनकों की तरह उड़ाए जा रहा था। उसने दुर्योधन को भी लहूलहान कर दिया। तब दुर्योधन सहायता मांगने कर्ण के पास आया। कर्ण शक्ति अस्त्र सिर्फ अर्जुन पर इस्त्माल करना चाहता था, पर मित्रता से विवश हो कर उसने वह अस्त्र भीम पुत्र घटोत्कच कर चला दिया। और उसका अंत कर दिया। और इस तरह अर्जुन सुरक्षित हो गया।
अपनें साथ दो-दो शापों का बोझ ले कर चल रहे कर्ण को यह बात पता थी की जहां धर्म है वहीं कृष्ण होते हैं और जहां कृष्ण है वहीं विजय भी होती है। फिर भी उसने न दुर्योधन के एहसान भूल कर उससे घात किया, और ना ही अपनी दानवीरता से कभी पीछे हटा।
सार- हो सके तो किसी के ऋणी मत बनो, और एक बार अगर किसी के ऋणी बन ही जाओ तो ऋण चुकाने में आनाकानी मत करो। अगर कोई कुछ मांगने आए तो उसे निराश नहीं करना चाहिए, जितना संभवतः हो उसकी मदद करनी चाहिए।

Pauranik Kathayen in Hindi #5: कर्ण की निष्ठा

एक राज पुत्र होते हुए भी कर्ण सूत पुत्र कहा गया। कर्ण एक महान दानवीर था। अपनें प्रण और वचन के लिए कर्ण अपनें प्राणों की भी बलि दे सकता था। पांडवों की शिक्षा खतम होने के बाद आयोजित रंग-भूमि में आकर कर्ण अर्जुन को ललकारता है  कि अगर वह संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुरधर है तो उससे मुक़ाबला कर के सिद्ध करे।
कर्ण एक सूत के घर पला-बढ़ा होता है, इसलिए उसे सूत पुत्र समझ कर अर्जुन से मुक़ाबला नहीं करने दिया जाता है। पांडवों के प्रखर विरोधी दुर्योधन को यहाँ एक अवसर दिखता है, और वह फौरन कर्ण को अंग देश का राजा घोषित कर देता है। और कर्ण को अपना मित्र बना लेता है।
दुर्योधन के इस कृत्य से कर्ण के दुखते घावों पर मरहम लग जाता है। लेकिन समय सीमा खत्म होने के कारण रंगभूमि में कर्ण-अर्जुन का मुक़ाबला टल जाता है।
पांडवो और कौरवों के अंतिम निर्णायक युद्ध के पहले भगवान कृष्ण कर्ण को यह भेद बताते हैं कि तुम एक पांडव हो और कुंती के ज्येष्ठ पुत्र हो। इस रहस्य को जान कर भी कर्ण अपनें मित्र दुर्योधन से घात कर के अपनें भाइयों की ओर नहीं जाता है।

Pauranik Kahaniyan #4: भस्मासुर को शिव का वरदान

Bhasmasur Story in Hindi
पूर्व काल में भस्मासुर नाम का एक राक्षस हुआ करता था। उसको समस्त विश्व पर राज करना था। अपने इसी प्रयोजन को सिद्ध करने हेतु वह शिव की कठोर तपस्या करता है। अंत में भोलेनाथ उसकी बरसों की गहन तपस्या से प्रसन्न हो कर उस के सामने प्रकट होते हैं।
शिव उसे वरदान मांगने के लिए कहते हैं। तब भस्मासुर अमरत्व का वरदान मांगता है। अमर होने का वरदान सृष्टि विरुद्ध विधान होने के कारण शंकर भगवान उसकी यह मांग नकार देते हैं। तब भस्मासुर अपनी मांग बदल कर यह वरदान मांगता है की वह जिसके भी सिर पर हाथ रखे वह भस्म हो जाए।
शिवजी उसे यह वरदान दे देते हैं। तब भस्मासुर शिवजी को ही भस्म करने उसके पीछे दौड़ पड़ता है। जैसे तैसे अपनी जान बचा कर शंकर भगवान विष्णु की शरण में जाते हैं और उन्हे पूरी बात बताते हैं। भगवान विष्णु फिर भस्मासुर का अंत करने के लिए मोहिनी रूप रचते हैं।
भस्मासुर जब भटक भटक कर शिवजी को भस्म करने के लिए ढूंढ रहा होता है तब मोहीनी उसके समीप प्रकट हो आती है। उसकी सुंदरता से मुग्ध हो कर भस्मासुर वहीं रुक जाता है। और मोहिनी से विवाह का प्रस्ताव रख देता है। मोहिनी जवाब में कहती है कि-
वह सिर्फ उसी युवक से विवाह करेगी जो उसकी तरह नृत्य में प्रवीण हो।
अब भस्मासुर को नृत्य आता नहीं था तो उसने इस कार्य में मोहिनी से मदद मांगी। मोहिनी तुरंत तैयार हो गयी। नृत्य सिखाते-सिखाते मोहिनी ने अपना हाथ अपने सिर पर रखा और उसकी देखा-देखी भस्मासुर भी शिव का वरदान भूल कर अपना ही हाथ अपने सिर पर रख बैठा और खुद ही भस्म हो गया। इस तरह विष्णु भगवान की सहायता से भोलेनाथ की विकट समस्या का हल हो जाता है।
सार- ज्ञान और दान सुपात्र को ही देना चाहिए।

Pauranik Katha #1: जनमेजय का “सर्प मेघ यज्ञ”

एक बार राजा परीक्षित किसी तपस्वी ऋषि का अपमान कर देते हैं। ऋषिवर क्रोधित हो उन्हें सर्प दंश से मृत्यु का श्राप दे देते हैं। बहुत सावधानियां रखने के बावजूद ऋषि वाणी अनुसार एक दिन फूलों की टोकरी में कीड़े के रूप में छुपे तक्षक नाग के काटने से परीक्षित की मृत्यु हो जाती है।
जब राजा परीक्षित के पुत्र जनमेजय (पांडव वंश के आखिरी राजा) को पता चलता है की साँपों के राजा, तक्षक नाग के काटने से उनके पिता की मृत्यु हुई है तो वे प्रतिशोध लेने का निश्चय करते हैं। जनमेजय सर्प मेघ यज्ञ का आहवाहन करते हैं, जिससे समस्त पृथ्वी के साँप एक के बाद एक हवन कुंड में आ कर गिरने लगते हैं।
सर्प जाति का अस्तित्व खतरे में पड़ता देख तक्षक नाग सूर्य देव के रथ में जा लिपटता है। अब अगर तक्षक नाग हवन कुंड में जाता तो उसके साथ सूर्य देव को भी हवन कुंड में जाना पड़ता। और इस दुर्घटना से सृष्टि की गति थम जाति। पिता की मृत्यु का बदला लेने की चाह में जनमेजय समस्त सर्प जाति का विनाश करने पर तुला था इसलिए देवगण उन्हे यज्ञ रोकने की सलाह देते हैं पर वह नहीं मानते। अंत में अस्तिका मुनि के हस्तक्षेप से जनमेजय अपना महा विनाशक यज्ञ रोक देते हैं।
सार- बुरे कर्म का बुरा फल मिलना अटल है। नियति को कोई टाल नहीं सकता।

Pauranik Kahani #2: धृतराष्ट्र का पुत्र मोह

हस्तिनापुर नरेश धृतराष्ट्र जन्म से अंध थे। इस कारण वह ज्येष्ठ पुत्र होते हुए भी राजा बनने योग्य नहीं थे। परंतु राजा पांडु एक गंभीर बीमारी का शिकार हो जाने की वजह से वन प्रस्थान कर गए थे और एक राज्य का सिंहासन रिक्त नहीं रखा जा सकता था, इसलिए धृतराष्ट्र को पांडु का प्रतिनिधि राजा बनाया गया था।
एक बार राजसुख का स्वाद चख लेने वाले धृतराष्ट्र चाहते थे की उनके बाद हस्तिनापुर का राजा उनका पुत्र दुर्योधन बनें। इसी लालसा में उन्होने न्याय और अन्याया में तर्क करना छोड़ दिया, और अपने पुत्र की हर एक ज़्यादती को वह अनदेखा कर के पांडु पुत्रों से पग-पग पर अन्याय करते गए।
दुर्योधन ने भी पांडवों के लिए अपनें ह्रदय मे घृणा ही पाल रखी थी। भीम को ज़हर दे कर नदी में डुबोना, लाक्षाग्रह में आग लगा कर पांडु पुत्रों और कुंती को ज़िंदा जला देने का षड्यंत्र, द्रौपदी चीर हरण, द्यूत क्रीडा में कपट कर के पांडवों को वनवास भेजना और ना जाने ऐसे कई षड्यंत्र से उसने पांडवों का अनिष्ट करने की चेष्टा की थी।
अंत में जब उन के पाप का घड़ा भर गया, तब धर्म युद्ध हुआ। और उस महायुद्ध में लालची धृतराष्ट्र के 100 पुत्र मृत्यु को प्राप्त हुए। अपनी लालसा की वेदी पर अपने समस्त पुत्रों की बलि चढ़ा देने वाले धृतराष्ट्र नें युद्ध समाप्ती के बाद भी भीमसेन को अपनी भूजाओं में जकड़ कर मार डालने का प्रयास किया था। लेकिन अंत में शर्मिंदा हो और हार स्वीकार कर धृतराष्ट्र पत्नी सहित वन चले जाते हैं।
सार- लालच बुरी बला है। इसे करने वाले का अंत भी धृतराष्ट्र जैसा ही होता है “परास्त” और “अपमानित”।

Pauranik Katha #3: लक्ष्मण को मिला ज्ञान

श्री राम और रावण के बीच हुए अंतिम युद्ध के बाद रावण जब युद्ध भूमि पर, मरणशैया पर पड़ा होता है तब भगवान राम लक्ष्मण को समस्त वेदो के ज्ञाता, महापंडित रावण से राजनीति और शक्ति का ज्ञान प्राप्त करने को कहते हैं।
और तब रावण लक्ष्मण को ज्ञान देते है कि-
  • अच्छे कार्य में कभी विलंब नहीं करना चाहिए। और अशुभ कार्य को मोह वश करना ही पड़े तो उसे जितना हो सके उतना टालने का प्रयास करनी चाहिए।
  • शक्ति और पराक्रम के मद में इतना अँधा नहीं हो जाना चाहिए की हर शत्रु तुच्छ और निम्न लगने लगे। मुझे ब्रह्मा जी से वर मिला था की वानर और मानव के अलावा कोई मुझे मार नहीं सकता। फिर भी मै उन्हे तुच्छ और निम्न समझ कर अहम में लिप्त रहा। जिस कारण मेरा समूल विनाश हुआ।
  • तीसरी और अंतिम बात रावण नें यह कही कि, अपनें जीवन के गूढ रहस्य स्वजन को भी नहीं बताने चाहिए। चूँकि रिश्ते और नाते बदलते रहते हैं। जैसे की विभीषण जब लंका में था तब मेरा हितेच्छु था। पर श्री राम की शरण में आने के बाद मेरे विनाश का माध्यम बना।
सार- अपनें गूढ़ रहस्य अपनें तक रखना, शुभ कर्म में देरी ना करना, गलत काम से परहेज़ करना, और किसी भी शत्रु को कमज़ोर ना समझना , यह अमूल्य पाठ हर एक इंसान को अपनें जीवन में उतारना चाहिए।

आओ कुछ सीखे

सुभाषबाबू हिन्दी पढ़ लिख सकते थे, बोल सकते थे मगर वह इसमें बराबर हिचकते और कमी महसूस करते थे। वह चाहते थे कि हिन्दी में वह हिन्दी भाषी लोगों की तरह ही सब काम कर सकें।
एक दिन उन्होंने अपने उदगार प्रकट करते हुए कहा, "यदि देश में जनता के साथ राजनीति करनी है, तो उसका माध्यम हिन्दी ही हो सकती है। बंगाल के बाहर मैं जनता में जाऊं तो किस भाषा में बोलूं? इसलिए कांग्रेस का सभापति बनकर मैं हिन्दी खूब अच्छी तरह न जानू तो काम नहीं चलेगा। मुझे एक  मास्टर दीजिए, जो मेरे साथ रहे और मेरा हिन्दी का सारा काम कर दे। इसके साथ ही जब मैं चाहूं और मुझे समय मिले तब मैं उससे हिन्दी सीखता रहूं।"
श्री जगदीशनारायण तिवारी को, जो मूक कांग्रेस कर्मी थे और हिन्दी के अच्छे शिक्षक थे, सुभाषबाबू के साथ रखा गया। हरिपुरा कांग्रेस में तथा सभापति के दौरे के समय वह बराबर सुभाषबाबू के साथ रहे। सुभाषबाबू ने बड़ी लगन से हिन्दी सीखी और वह सचमुच बहुत अच्छी हिन्दी लिखने, पढ़ने और बोलने लगे।
'आजाद हिंद फौज' का काम और सुभाषबाबू के वक्तव्य प्राय: हिन्दी में होते थे। नेताजी भविष्यदृष्टा थे और भलीभांति जानते थे कि जिस देश की अपनी राष्ट्रभाषा नहीं होती, वह खड़ा नहीं रह सकता।
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साभार - बड़ों की बड़ी बात

हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai

एक जनहित की संस्‍था में कुछ सदस्‍यों ने आवाज उठाई, 'संस्‍था का काम असंतोषजनक चल रहा है। इसमें बहुत सुधार होना चाहिए। संस्‍था बरबाद हो रही है। इसे डूबने से बचाना चाहिए। इसको या तो सुधारना चाहिए या भंग कर देना चाहिए।
संस्‍था के अध्‍यक्ष ने पूछा कि किन-किन सदस्‍यों को असंतोष है।
दस सदस्‍यों ने असंतोष व्‍यक्‍त किया।
अध्‍यक्ष ने कहा, 'हमें सब लोगों का सहयोग चाहिए। सबको संतोष हो, इसी तरह हम काम करना चाहते हैं। आप दस सज्‍जन क्‍या सुधार चाहते हैं, कृपा कर बतलावें।'
और उन दस सदस्‍यों ने आपस में विचार कर जो सुधार सुझाए, वे ये थे -
'संस्‍था में चार सभापति, तीन उप-सभापति और तीन मंत्री और होने चाहिए...'

महादेवी वर्मा | Mahadevi Verma

भीत-सी आंखों वाली उस दुर्बल, छोटी और अपने-आप ही सिमटी-सी बालिका पर दृष्टि डाल कर मैंने सामने बैठे सज्जन को, उनका भरा हुआ प्रवेशपत्र लौटाते हुए कहा- 'आपने आयु ठीक नहीं भरी है। ठीक कर दीजिए, नहीं तो पीछे कठिनाई पड़ेगी।'   'नहीं, यह तो गत आषाढ़ में चौदह की हो चुकी'  सुनकर मैंने कुछ विस्मित भाव से अपनी उस भावी विद्यार्थिनी को अच्छी तरह देखा, जो नौ वर्षीय बालिका की सरल चंचलता से शून्य थी और चौदह वर्षीय किशोरी के सलज्ज उत्साह से अपरिचित।
उसकी माता के संबंध में मेरी जिज्ञासा स्वगत न रहकर स्पष्ट प्रश्न ही बन गयी होगी, क्योंकि दूसरी ओर से कुछ कुंठित उत्तर मिला- 'मेरी दूसरी पत्नी है, और आप तो जानती ही होंगी...' और उनके वाक्य को अधसुना ही छोड़कर मेरा मन स्मृतियों की चित्रशाला में दो युगों से अधिक समय की भूल के नीचे दबे बिंदा या विन्ध्येश्वरी के धुंधले चित्र पर उँगली रखकर कहने लगा --ज्ञात है, अवश्य ज्ञात है।
बिंदा मेरी उस समय की बाल्य सखी थी, जब मैंने जीवन और मृत्यु का अमिट अन्तर जान नहीं पाया  था। अपने नाना और दादी के स्वर्ग-गमन की चर्चा सुनकर मैं बहुत गम्भीर मुख और आश्वस्त भाव से घर भर को सूचना दे चुकी थी कि जब मेरा सिर कपड़े रखने की आलमारी को छूने लगेगा, तब मैं निश्चय ही एक बार उनको देखने जाऊंगी। न मेरे इस पुण्य संकल्प का विरोध करने की किसी को  इच्छा हुई और न मैंने एक बार मरकर कभी न लौट सकने का नियम जाना। ऐसी दशा में, छोटे-छोटे असमर्थ बच्चों को छोड़कर मर जाने वाली मां की कल्पना मेरी बुद्धि में कहां ठहरती। मेरा संसार का अनुभव भी बहुत संक्षिप्त-सा था। अज्ञानावस्था से मेरा साथ देने वाली सफेद कुत्ती -सीढ़ियों के नीचे  वाली अंधेरी कोठरी में आँख मूँद पड़े रहने वाले बच्चों की इतनी सतर्क पहरेदार हो उठती थी कि उसका ग़ुर्राना मेरी सारी ममता-भरी मैत्री पर पानी फेर देता था। भूरी पूसी भी अपने चूहे जैसे नि:सहाय बच्चों को तीखे पैने दाँतों में ऐसी कोमलता से दबाकर कभी लाती, कभी ले जाती थी कि उनके कहीं एक दाँत भी न चुभ पाता था। ऊपर की छत के कोने पर कबूतरों का और बड़ी तस्वीर के पीछे गौरैया का जो भी घोंसला था, उसमें खुली हुई छोटी-छोटी चोंचों और उनमें सावधानी से भरे जाते  दोनों और कीड़े-मकोड़ों को भी मैं अनेक बार देख चुकी थी। बछिया को हटाते हुए ही रँभा-रँभा कर घर भर को यह दु:खद समाचार सुनाने वाली अपनी श्यामा गाय की व्याकुलता भी मुझसे छिपी न थी। एक बच्चे को कन्धे से चिपकाये और एक उँगली पकड़े हुए जो भिखारिन द्वार-द्वार फिरती थी, वह भी तो बच्चों के लिए ही कुछ माँगती रहती थी। अत: मैंने निश्चित रूप से समझ लिया था कि संसार का सारा कारोबार बच्चों को खिलाने-पिलाने, सुलाने आदि के लिए ही हो रहा है और इस महत्वपूर्ण कर्तव्य में भूल न होने देने का काम माँ नामधारी जीवों को सौंपा गया है।  
और बिंदा के भी तो माँ थी जिन्हें हम पंडिताइन चाची और बिंदा नई अम्मा कहती थी। वे अपनी गोरी, मोटी देह को रंगीन साड़ी से सजे-कसे, चारपाई पर बैठ कर फूले गाल और चिपटी-सी नाक के दोनों ओर नीले कांच के बटन सी चमकती हुई आँखों से युक्त मोहन को तेल मलती रहती थी। उनकी विशेष कारीगरी से संवारी पाटियों के बीच में लाल स्याही की मोटी लकीर-सा सिन्दूर उनींदी सी आँखों  में काले डोरे के समान लगने वाला काजल, चमकीले कर्णफूल, गले की माला, नगदार रंग-बिरंगी चूड़ियाँ और घुँघरूदार बिछुए मुझे बहुत भाते थे, क्योंकि यह सब अलंकार उन्हें गुड़िया की समानता दे देते थे।  
यह सब तो ठीक था, पर उनका व्यवहार विचित्र -सा जान पड़ता था। सर्दी के दिनों में जब हमें धूप निकलने पर जगाया जाता था, गर्म पानी से हाथ मुंह धुलाकर मोजे, जूते और ऊनी कपड़ों से सजाया जाता था और मना-मनाकर गुनगुना दूध पिलाया जाता था, तब पड़ोस के घर में पंडिताइन चाची का स्वर उच्च-से उच्चतर होता रहता था। यदि उस गर्जन-तर्जन का कोई अर्थ समझ में न आता, तो मैं उसे श्याम के रँभाने  के समान स्नेह का प्रदर्शन भी समझ सकती थी, परन्तु उसकी शब्दावली परिचित होने के कारण ही कुछ उलझन पैदा करने वाली थी। 'उठती है, या आऊं', 'बैल के-से दीदे क्या निकाल रही है', मोहन का दूध कब गर्म होगा', ' अभागी मरती भी नहीं' आदि वाक्यों में जो कठोरता की धारा बहती रहती थी, उसे मेरा अबोध मन भी जान ही लेता था।
कभी-कभी जब मैं ऊपर की छत पर जाकर उस घर की कथा समझने का प्रयास करती, तब मुझे मैली  धोती लपेटे हुए बिंदा ही आँगन से चौके तक फिरकनी-सी नाचती दिखाई देती। उसका कभी झाडू देना, कभी आग जलाना, कभी आँगन के नल से कलसी में पानी लाना, कभी नई अम्मा को दूध का कटोरा देने जाना, मुझे बाजीगर के तमाशा जैसे लगता था,  क्योंकि मेरे लिए तो वे सब कार्य असम्भव-से थे  पर जब उस विस्मित कर देने वाले कौतुक की उपेक्षा कर पंडिताइन चाची का कठोर स्वर गूंजने लगता, जिसमें कभी-कभी पंडित जी की घुड़की का पुट भी रहता था, तब न जाने किस दु:ख की छाया मुझे घेरने लगती थी। जिसकी सुशीलता का उदाहरण देकर मेरे नटखटपन को रोका जाता था, वहीं  बिंदा घर में चुपके-चुपके कौन-सा नटखटपन करती रहती है, इसे बहुत प्रयत्न करके भी मैं न समझ पाती थी। मैं एक भी काम नहीं करती थी और रात-दिन ऊधम मचाती रहती; पर मुझे तो माँ ने न मर जाने की आज्ञा दी और न आँखें निकाल लेने का भय दिखाया। एक बार मैंने पूछा भी - ' क्या पंडिताइन चाची तुमरी तरह नहीं है ?'  मां ने मेरी बात का अर्थ कितना समझा यह तो पता नहीं, उनके संक्षिप्त 'हैं'  से न बिंदा की समस्या का समाधान हो सका और न मेरी उलझन सुलझ पाई।  
बिंदा मुझसे कुछ बड़ी ही रही होगी; परन्तु उसका नाटापन देखकर ऐसा लगता था, मानों किसी ने ऊपर से दबाकर उसे कुछ छोटा कर दिया हो। दो पैसों में आने वाली खँजड़ी के ऊपर चढ़ी हुई झिल्ली के समान पतले चर्म से मढ़े और भीतर की हरी-हरी नसों की झलक देने वाले उसके दुबले हाथ-पैर न जाने किस अज्ञात भय से अवसन्न रहते थे। कहीं से कुछ आहट होते ही उसका विचित्र रूप से चौंक पड़ना और पंडिताइन चाची का स्वर कान में पड़ते ही उसके सारे शरीर का थरथरा उठना, मेरे विस्मय को बढ़ा ही नहीं देता था, प्रत्युत उसे भय में बदल देता था। और बिंदा की आँखें तो मुझे पिंजड़े में बन्द चिड़िया की याद दिलाती थीं।   
एक बार जब दो-तीन करके तारे गिनते-गिनते उसने एक चमकीले तारे की ओर उँगली उठाकर कहा- 'वह रही मेरी अम्मा' तब तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। 'क्या सब-की एक अम्मा तारों में होती है ओर एक घर में? '  पूछने पर बिंदा ने अपने ज्ञान-कोष में से कुछ कण मुझे दिए और तब मैंने समझा कि जिस अम्मा को ईश्वर बुला लेता है, वह तारा बनकर ऊपर से बच्चों को देखती रहती है और जो बहुत सजधज से घर में आती है, वह बिंदा की नई अम्मा जैसी होती है। मेरी बुद्धि सहज ही पराजय स्वीकार करना नहीं जानती,  इसी से मैंने सोचकर कहा- 'तुम नई अम्मा को पुरानी अम्मा क्यों नहीं कहती, फिर वे न नई रहेंगी और न  डाँटेंगी ।'  
बिंदा को मेरा उपाय कुछ जँचा नहीं, क्योंकि वह तो अपनी पुरानी अम्मा को खुली पालकी में लेटकर जाते और नई को बन्द पालकी में बैठकर आते देख चुकी थी, अत: किसी को भी पदच्युत करना उसके लिए कठिन था पर उसकी कथा से मेरा मन तो सचमुच आकुल हो उठा, अत: उसी रात को मैंने माँ से बहुत अनुनय पूर्वक कहा- 'तुम कभी तारा न बनना, चाहे भगवान कितना ही चमकीला तारा बनावें।'  माँ बेचारी मेरी विचित्र मुद्रा पर विस्मित होकर कुछ बोल भी न पाई थी कि मैंने अकुंठित भाव से अपना आशय प्रकट कर दिया - 'नहीं तो पंडिताइन चाची जैसी नई अम्मा पालकी में बैठकर आ जाएगी और फिर मेरा दूध, बिस्कुट, जलेबी सब बन्द हो जायगी - और मुझे बिंदा बनना पड़ेगा।'  माँ का उत्तर तो मुझे स्मरण नहीं, पर इतना याद है कि उस रात उसकी धोती का छोर मुट्ठी में दबाकर ही मैं सो पाई थी।   
बिंदा के अपराध तो मेरे लिए अज्ञात थे; पर पंडिताइन चाची के न्यायालय से मिलने वाले दण्ड के सब रूपों से मैं परिचित हो चुकी थी। गर्मी की दोपहर में मैंने बिंदा को आँगन की जलती धरती पर  बार-बार पैर उठाते ओर रखते हुए घंटों खड़े देखा था, चौके के खम्भे से दिन-दिन भर बंधा पाया था    और भूस से मुरझाये मुख के साथ पहरों नई अम्मा ओर खटोले में सोते मोहन पर पंखा झलते देखा  था। उसे अपराध का ही नहीं, अपराध के अभाव का भी दण्ड सहना पड़ता था, इसी से पंडित जी की थाली में पंडिताइन चाची का ही काला मोटा और घुँघराला बाल निकलने पर भी दण्ड बिंदा को मिला। उसके छोटे-छोटे हाथों से धुल न सकने वाले, उलझे, तेलहीन बाल भी अपने स्वाभाविक भूरेपन ओर कोमलता के कारण मुझे बड़े अच्छे लगते थे। जब पंडिताइन चाची की कैंची ने उन्हें कूड़े के ढेर पर, बिखरा कर उनके स्थान को बिल्ली की काली धारियों जैसी रेखाओं से भर दिया तो मुझे रूलाई आने लगी; पर बिंदा ऐसे बैठी रही, मानों सिर और बाल दोनों नई अम्मा के ही हों।
और एक दिन याद आता है। चूल्हे पर चढ़ाया दूध उफना जा रहा था। बिंदा ने नन्हें-नन्हें हाथों से दूध की पतीली उतारी अवश्य; पर वह उसकी उंगलियों से छूट कर गिर पड़ी। खौलते दूध से जले पैरों के साथ दरवाजे पर खड़ी बिंदा का रोना देख मैं तो हतबुद्धि सी हो रही। पंडिताइन चाची से कह कर वह दवा क्यों नहीं लगवा लेती, यह समझाना मेरे लिए कठिन था। उस पर जब बिंदा मेरा हाथ अपने जोर से धड़कते हुए ह्रदय से लगाकर कहीं छिपा देने की आवश्यकता बताने लगी, तब तो मेरे लिए सब कुछ रहस्मय हो उठा।
उसे मै अपने घर में खींच लाई अवश्य; पर न ऊपर के खण्ड में माँ के पास ले जा सकी और न  छिपाने का स्थान खोज सकी। इतने में दीवारें लाँघ कर आने वाले, पंडिताइन चाची के उग्र स्वर ने भय से हमारी दिशाएं रूँध दीं, इसी से हड़बडाहट में हम दोनों उस कोठरी में जा घुसीं, जिसमें गाय के लिए घास भरी जाती थी। मुझे तो घास की पत्तियाँ भी चुभ रही थीं, कोठरी का अंधकार भी कष्ट दे रहा था; पर बिंदा अपने जले पैरों को घास में छिपाये और दोनों ठंडे हाथें से मेरा हाथ दबाये ऐसे बैठी थी, मानों घास का चुभता हुआ ढेर रेशमी बिछोना बन गया हो।    
मैं तो शायद सो गई थी; क्योंकि जब घास निकालने के लिए आया हुआ गोपी इस अभूतपूर्व दृश्य की घोषणा करने के लिए कोलाहल मचाने लगा, तब मैंने आँखें मलते हुए पूछा ' क्या सबेरा हो गया ?'
माँ ने बिंदा के पैरों पर तिल का तेल और चूने का पानी लगाकर जब अपने विशेष सन्देशवाहक के साथ उसे घर भिजवा दिया, तब उसकी क्या दशा हुई, यह बताना कठिन है; पर इतना तो मैं जानती हूँ  कि पंडिताइन चाची के न्याय विधान में न क्षमा का स्थान था, न अपील का अधिकार।  
फिर कुछ दिनों तक मैंने बिंदा को घर- आँगन  में काम करते नहीं देखा। उसके घर जाने से माँ ने  मुझे रोक दिया था; पर वे प्राय: कुछ अंगूर और सेब लेकर वहाँ हो आती थीं। बहुत ख़ुशामद करने पर  रूकिया ने बताया कि उस घर में महारानी आई हैं। 'क्या वे मुझसे नहीं मिल सकती' पूछने पर वह मुँह में कपड़ा ठूँस कर हँसी रोकने लगी। जब मेरे मन का कोई समाधान न हो सका, तब मैं एक    दिन दोपहर को सभी की आँख बचाकर बिंदा के घर पहुँची। नीचे के सुनसान खण्ड में बिंदा अकेली एक खाट पर पड़ी थी। आँखें गड्ढे में धंस गयी थीं, मुख दानों से भर कर न जाने कैसा हो गया था  और मैली-सी सादर के नीचे छिपा शरीर बिछौने से भिन्न ही नहीं जान पड़ता था। डाक्टर, दवा की शीशियाँ, सिर पर हाथ फेरती हुई माँ और बिछौने के चारों चक्कर काटते हुए बाबूजी के बिना भी  बीमारी का अस्तित्व है, यह मैं नहीं जानती थी, इसी से उस अकेली बिंदा के पास खड़ी होकर मैं चकित-सी चारों ओर देखती रह गयी। बिंदा ने ही कुछ संकेत और कुछ अस्पष्ट शब्दों में बताया कि नई अम्मा मोहन के साथ ऊपर खण्ड में रहती हैं, शायद चेचक के डर से। सबेरे-शाम बरौनी आकर उसका काम कर जाती है।  
उसके बाद फिर बिंदा को मिलन सम्भव न हो सका; क्योंकि मेरे इस आज्ञा- उल्लंघन से मां बहुत चिन्तित हो उठी थीं। एक दिन सबेरे ही रूकिया ने उनसे न जाने क्या कहा कि वे रामायण बन्दकर बार-बार आँखें पोंछती हुई बिंदा के घर चल दीं। जाते-जाते वे मुझे बाहर न निकलने का आदेश देना नहीं भूली थीं, इसी से इधर-उधर से झाँककर देखना आवश्यक हो गया। रूकिया मेरे लिए त्रिकालदर्शी से कम न थी; परन्तु वह विशेष अनुनय-विनय के बिना कुछ बताती ही नहीं थी और उससे अनुनय- विनय करना मेरे आत्म -सम्मान के विरूद्ध पड़ता था। अत: खिड़की से झाँककर मैं बिंदा के दरवाजे पर जमा हुए आदमियों के अतिरिक्त और कुछ न देख सकी और इस प्रकार की भीड़ से विवाह और  बारात का जो संबंध है, उसे मैं जानती थी। तब क्या उस घर में विवाह हो रहा है, और हो रहा है तो किसका? आदि प्रश्न मेरी बुद्धि की परीक्षा लेने लगे। पंडित जी का विवाह तो तब होगा, जब दूसरी पंडिताइन चाची भी मर कर तारा बन जाएंगी और बैठ न सकने वाले मोहन का विवाह संभव नहीं,   यही सोच-विचार कर मैं इस परिणाम तक पहुँची कि बिंदा का विवाह हो रहा है ओर उसने मुझे  बुलाया तक नहीं। इस अपमान से आहत मेरा मन सब गुड़ियों को साक्षी बनाकर बिंदा को किसी भी शुभ कार्य में न बुलाने की प्रतिज्ञा करने लगा।   
कई दिन तक बिंदा के घर झाँक-झाँककर जब मैंने माँ से उसके ससुराल से लौटने के संबंध में प्रश्न किया, तब पता चला कि वह तो अपनी आकाश-वासिनी अम्मा के पास चली गयी। उस दिन से मैं प्राय: चमकीले तारे के आस-पास फैले छोटे तारों में बिंदा को ढूँढ़ती रहती; पर इतनी दूर से पहचानना क्या संभव था?   
तब से कितना समय बीत चुका है, पर बिंदा ओर उसकी नई अम्मा की कहानी शेष नहीं हुई। कभी हो सकेगी या नहीं, इसे कौन बता सकता है ?