Friday, 22 September 2017

यह खेती कभी धोखा नहीं देती..

इस साल छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के कई इलाक़े सूखे की मार झेल रहे हैं. मगर दोनों राज्यों में रहने वाले बैगा और पहाड़ी कोरवा आदिवासियों के माथे पर शिकन तक नहीं. ये आदिवासी सदियों से बेवर खेती करते रहे हैं.
बेवर खेती यानी ज़मीन जोते बिना उसमें 56 तरह के पारंपरिक बीजों के सहारे खेती. मौसम की मार से दूर इस खेती से हर हाल में इतनी तो उपज हो ही जाती है कि गुज़ारा चल जाए.
आधुनिक तरीक़े से की जाने वाली खेती में फ़सलें भले एक बार धोखा दे दें, पर बेवर खेती कभी भूखा नहीं रहने देती.
मध्यप्रदेश के डिंडौरी ज़िले के बैगाचक इलाक़े में नान्हूं रठूरिया से अगर आप बेवर खेती के बारे में पूछें, तो वह बिना रुके आपको ऐसे कई कारण बता सकते हैं, जिससे आप खेती के इस तरीक़े से सहमत हो जाएंगे.
नान्हूं रठुरिया बताते हैं, “हम खेत जोतते नहीं हैं. छोटी-बड़ी झाड़ियों को जलाया और फिर आग ठंडी होने पर वहीं ज़मीन पर कम से कम 16 अलग-अलग तरह के अनाज, दलहन और सब्जियों के बीज लगा दिए. इनमें वो बीज हैं, जो अधिक बारिश हुई तो भी उग जाएंगे और कम बारिश हुई तो भी फ़सल की गारंटी है. इस खेती में न खाद की ज़रूरत होती है और न महंगे कीटनाशकों की.”


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घने जंगलों में रहने वाले इन गांवों में मौसम विभाग की भविष्यवाणी नहीं पहुँचतीं. गांव में घुर्घूटी कीड़ा निकले, तो मान लें कि इस साल खूब बारिश होगी. ऐसे में उन बीजों की मात्रा बढ़ा दी जाती है, जो अधिक बारिश में भी खूब फ़सल दें.
इसी तरह मौसम को जानने-समझने के कई पारंपरिक तरीक़े चलन में हैं, जो कभी ग़लत नहीं साबित होते. इसके अलावा ये आदिवासी मौसम आधारित पारंपरिक कंद-मूल तो लगाते ही हैं.
ये वो कंद-मूल हैं, जिन्हें खाकर पर्याप्त पोषण तो मिलता ही है, तरह-तरह की बीमारियों से भी छुटकारा मिलता है.
सिलपिड़ी गांव की सोमारी बाई कहती हैं, “किसी को बुखार हो जाए या पेटदर्द हो तो हम कड़ूगीठ कांदा या बेचांदीकांदा खाकर इन बीमारियों से लड़ लेते हैं. किसी को बिच्छू ने काट लिया तो रबीकांदा पीसकर लगा दें. कैसा भी ज़हर हो, उतर जाएगा. महिला का प्रसव हो तो डोनची कांदा खिलाना अनिवार्य है. इस कांदा को खाकर प्रसूता दूसरे दिन से काम पर लौट जाती है.”


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बिजली दैहान टोला की सुन्नी बाई से अगर आप पूछें तो बिना सांस लिए वे कई तरह के कंद के नाम बता देंगे. रही-सही कसर उनकी दूसरी सहेलियां पूरी कर देती हैं.
जरा उनके ही मुंह से सुनें, “सैदूकांदा, ढुरसीकांदा, बैचांदीकांदा, लोडंगीकांदा, कनिहाकांदा, डोनचीकांदा, रबीकांदा, ढुरसीकांदा, बड़ाइनकांदा, तिखुरकांदा, कड़ुगीठकांदा, बिराड़कांदा...”
वहीं पास खड़े चर्रा सिंह रठुरिया सोच-सोचकर कई साग-भाजी का नाम बताते जाते हैं, “केवलार भाजी, पीपर भाजी, अमला भाजी, लमेर भाजी, चिरौती भाजी, चरौटा भाजी, कच्छर भाजी, अकोती भाजी, तिनसा भाजी, करैया भाजी, कोंजियारी भाजी, कुसुम भाजी, गिरुल भाजी, ककती भाजी..”
बैगा महापंचायत के नरेश बिश्वास का कहना है कि पारंपरिक रूप से की जाने वाली बेवर खेती खाद्य सुरक्षा की गारंटी भी देती है और पोषण की भी. इससे ज़मीन की उर्वरा शक्ति भी बनी रहती है क्योंकि बेवर खेती के लिए हर तीसरे-चौथे साल नई ज़मीन चुनी जाती है.


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बिश्वास कहते हैं, “जंगल में मिलने वाले कम से कम 24 तरह के पत्ते और फूल और 25 तरह फलों की सब्ज़ी बैगा आदिवासियों के भोजन का हिस्सा हैं. मशरुम की लगभग 50 प्रजातियां हैं, जिन्हें बैगा और कोरबा आदिवासी खाते हैं."
"कंद-मूल की तो जाने ही दें. हम कथित सभ्य और आधुनिक समाज के लोगों को इस विविधता का न तो ज्ञान है, न अनुमान, न पहचान!”
कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर संकेत ठाकुर भी बताते हैं कि देश की विभिन्न जनजातियों ने हमेशा से बहुफ़सली खेती को ही बढ़ावा दिया. इससे एक तो खरपतवार नहीं आते और कीट नियंत्रण में इससे आसानी होती है.
किसी खेत में अगर कोई ख़ास किस्म का कीड़ा लगता है कि तो वह चार में से किसी एक ही फ़सल को नुक़सान पहुँचाता है. यानी शेष बची तीन फसलें कीटों से पूरी तरह से सुरक्षित रह जाती हैं.


बैगा आदिवासी, बेवर खेतीइमेज कॉपीर

डॉक्टर संकेत ठाकुर कहते हैं, “आज वैज्ञानिक कह रहे हैं कि खाने के लिए एक ही तरह के तेल या दलहन का उपयोग नहीं करना चाहिए. लेकिन इस बात को हमारी जनजातियों ने सदियों पहले से जान-समझ लिया था. उनके भोजन की विविधता चकित करने वाली है.”
बेवर खेती की ख़ास बातें
ब्रिटिश सरकार ने जंगल की कटाई का हवाला देते हुए आदिवासियों की पारंपरिक बेवर या झूम खेती पर प्रतिबंध लगा दिया था. लेकिन मध्यप्रदेश की डिंडौरी ज़िले के सात गांवों को 2,336 एकड़ इलाक़े में इस खेती की छूट थी.
भारतीय वन क़ानून बनने के बाद 1927 में यह छूट वापस ले ली गई लेकिन बेवर खेती की परंपरा तमाम प्रतिबंधों के बाद भी आज तक जारी है.
मध्यप्रदेश के डिंडौरी में बैगा आदिवासी और छत्तीसगढ़ के कोरबा में पहाड़ी कोरबाओं ने खेती की इस परंपरा को बचाए और बनाए रखा है.

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