दिव्य कवच-कुंडल के साथ कर्ण अजेय था और महाभारत के युद्ध में पांडव कभी उसे परास्त नहीं कर पाते। अतः इन्द्रदेव उससे सुबह स्नान के समय ब्राह्मण स्वरूप में आ कर दान में कवच-कुंडल मांगते हैं। पिता सूर्य देव द्वारा दिखाए गए स्वप्न से कर्ण को यह बात पहले ही ज्ञात हो जाती है कि इंद्र देव उससे रूप बदल कर कवच-कुंडल मांगने आयेंगे।
पर फिर भी दानवीर कर्ण ब्राह्मण रुपी इंद्र देव को खाली हाथ नहीं लौटता और उनकी मांग पूरी करता है। इंद्र देव कवच-कुंडल के बदले में कर्ण को एक शक्ति अस्त्र प्रदान करते हैं, जिसका इस्तेमाल सिर्फ एक बार किया जा सकता था और उसका कोई काट नहीं था।
युद्ध के दौरान भीम का पुत्र घटोत्कच कौरव सेना को तिनकों की तरह उड़ाए जा रहा था। उसने दुर्योधन को भी लहूलहान कर दिया। तब दुर्योधन सहायता मांगने कर्ण के पास आया। कर्ण शक्ति अस्त्र सिर्फ अर्जुन पर इस्त्माल करना चाहता था, पर मित्रता से विवश हो कर उसने वह अस्त्र भीम पुत्र घटोत्कच कर चला दिया। और उसका अंत कर दिया। और इस तरह अर्जुन सुरक्षित हो गया।
अपनें साथ दो-दो शापों का बोझ ले कर चल रहे कर्ण को यह बात पता थी की जहां धर्म है वहीं कृष्ण होते हैं और जहां कृष्ण है वहीं विजय भी होती है। फिर भी उसने न दुर्योधन के एहसान भूल कर उससे घात किया, और ना ही अपनी दानवीरता से कभी पीछे हटा।
सार- हो सके तो किसी के ऋणी मत बनो, और एक बार अगर किसी के ऋणी बन ही जाओ तो ऋण चुकाने में आनाकानी मत करो। अगर कोई कुछ मांगने आए तो उसे निराश नहीं करना चाहिए, जितना संभवतः हो उसकी मदद करनी चाहिए।
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